प्रेम के लिए कोई पाठशाला नहीं है. पाठशाला में प्रेम सिखाया नहीं जा सकता. होती भी पाठशाला, तो भी नहीं सीख पाते; तो नहीं है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. लेकिन फिर भी हम प्रेम से इतना दूर आ गए हैं कि उसे फिर से खोजना होगा.
कई बार जब शब्द बहुत प्रचलित हो जाते हैं तो प्रायः हमारे जीवन में उनका अनुभव कहीं नहीं होता. प्रेम और परमात्मा शब्द बहुत प्रचलित हैं लेकिन जीवन उनसे खाली है. बहुत प्रचलित शब्दों से सावधान रहना चाहिए. हमें जीवन में बीच-बीच में ठहर कर उन सारी बातों का पुनरावलोकन करना चाहिए जो जीवन में बहुत अधिक उपयोग में लाई जाती हैं; उन पर ध्यान ले जाना चाहिए कि क्या वो सचमुच में जीवन में हैं. अगर नहीं हैं, तो उनके लिए कुछ उपाय करने पड़ेंगे.
पहला उपाय यही कि स्वयं के भीतर शांत होकर ठहरना सीखो और फिर दूसरे के साथ भी ऐसे ही रहो. यह तुम्हारी और दूसरे की दूरियों को कम करेगा.
प्रेम मौन में घटता है, फिर मुखरता के रंगों में विकसित होता चला जाता है. अतः स्वयं के साथ व दूसरे के साथ मौन होना सीखो. दूसरे से लगातार बोलना दूसरे का असम्मान है. बोल-बोल कर तुम दूसरे से बचते हो. बोलना प्रायः दूसरे से बचने का उपाय होता है. मौन होना दूसरे के प्रति खुलना है. तुम अपने भीतर की लगातार चलती बातचीत से अलग होकर मौन में ठहर सको तो तुम जीवन की सूक्ष्म तरंगों को अनुभव कर पाओगे. प्रेम भी ऐसी ही एक सूक्ष्म तरंग और ऊर्जा है.
प्रेम निःशब्द है हालाँकि उसकी खिलावट से सारे शब्द प्रकट होते हैं. जीवन और प्रेम, दृश्य और अदृश्य, स्थूल और सूक्ष्म का जोड़ है. मौन तुम्हें दोनों से जोड़ता है. मौन तुम्हारे भीतर की गहनतम संवेदनशीलता से उपजा आंतरिक स्थिरता का केंद्र है.
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